Himalayan Musk Deer: हिमालय की ऊंची चोटियों पर मिलने वाला हिमालयी कस्तूरी मृग (मस्क डियर) न केवल एक दुर्लभ प्रजाति है, बल्कि यह पारिस्थितिकी तंत्र का अहम हिस्सा भी है। इस छोटे, हिरण जैसे जानवर की खासियत इसकी कस्तूरी ग्रंथि है, जो सदियों से परफ्यूम और दवाओं के लिए अवैध शिकार का शिकार बनी हुई है। लेकिन अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) द्वारा 'अतिसंवेदनशील' (Endangered) घोषित इस प्रजाति की संख्या तेजी से घट रही है। इसने संरक्षण प्रयासों की कमी ने स्थिति को और गंभीर बना दिया है। हाल ही में सूचना का अधिकार (RTI) के माध्यम से सामने आए तथ्यों ने एक कड़वी सच्चाई उजागर की है। दरअसल, देश में इस प्रजाति के लिए शुरू किए गए प्रजनन कार्यक्रम नाकाम हो रहे हैं।
हिमालयी कस्तूरी मृग का संरक्षण
बता दें, 'सूचना का अधिकार' अधिनियम के तहत 'डाउन टू अर्थ' पत्रिका द्वारा दाखिल RTI आवेदन ने केंद्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण (CZA) से मिली जानकारी के आधार पर खुलासा किया है। रिपोर्ट के अनुसार, भारत में हिमालयी कस्तूरी मृग के संरक्षण के लिए कोई भी कैप्टिव ब्रीडिंग या कंजर्वेशन ब्रीडिंग कार्यक्रम कभी शुरू ही नहीं किया गया। अप्रैल 2025में जारी CZA की रिपोर्ट स्पष्ट रूप से बताती है कि भारतीय चिड़ियाघरों में इस प्रजाति के प्रजनन पर कोई काम नहीं हुआ, भले ही योजना कागजों पर मौजूद हो।
RTI प्रतिक्रिया में CZA ने स्वीकार किया कि अल्पाइन कस्तूरी मृग (जिसे हिमालयी कस्तूरी मृग के रूप में जाना जाता है) के लिए कोई स्टडबुक या प्रजनन रजिस्टर भी तैयार नहीं किया गया। यानी इसका मतलब है कि न तो कोई जानवर चिड़ियाघरों में लाया गया, न ही उनकी संख्या पर निगरानी रखी गई। यह विफलता केवल लापरवाही नहीं, बल्कि संरक्षण नीतियों की कमजोरी को दर्शाती है।
प्रजाति की पहचान में झोल
विषय को और जटिल बनाते हुए, अगस्त 2025 में CZA की एक अन्य रिपोर्ट ने खुलासा किया कि भारतीय चिड़ियाघरों में अल्पाइन कस्तूरी मृग की जगह गलत प्रजाति को ही संरक्षण कार्यक्रम में शामिल कर लिया गया था। वैज्ञानिक नाम मस्कस क्राइसोगेस्टर (Moschus chrysogaster) वाली इस प्रजाति को पहचानने में हुई चूक ने वर्षों के प्रयासों को बेकार कर दिया। रिपोर्ट की मानें तो कुछ चिड़ियाघरों में साइबेरियन मस्क डियर जैसी अन्य प्रजातियों को गलती से अल्पाइन मस्क डियर समझ लिया गया, जिससे वास्तविक संरक्षण लक्ष्य से भटकाव हो गया। यह गलती न केवल संसाधनों की बर्बादी है, बल्कि जेनेटिक विविधता को बचाने के प्रयासों पर भी सवाल खड़े करती है।
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